Friday, December 17, 2010

अपरिचित-2

मेरी अपरिचित श्रंखला के कुछ मोती प्रस्तुत कर रहा हूँ..आशा है पसंद आए. धन्यवाद !!!

एक लौ :
एक नन्ही जोति के मुस्काने पर 
सहमी रात भी हंस देती थी,
भटके रही राह पकड़ते
मंज़िल ना खोने देती थी..
एक नीली चादर ओढ़े
पूरब से आई सुबह कदाचित,
फूंक से उसने बुझा दिया
वो राह दिखाती जोति अपरिचित..


देश और द्वेष :

ये जाती धरम के द्वेष भाव
ना कभी सभ्य कहलाते हैं,
भूल गए जो प्रेम की भाषा
उन्हें बहुत उकसाते हैं..
बिसराकर मन की ये गाठें
गर नयी पहल हो जाए कदाचित,
सोने की चिड़िया फिर चहके 
जब हो जाए ये द्वेष अपरिचित...


धरा और पर्यावरण :

बढता ताप पिघलते हिमगिर
मौसम भी चाल बदल जाते हैं,
कुछ सन्देश, बिना भाषा के 
ज्ञान चक्षु ही पढ़ पाते हैं..
पशु पक्षी तो मतिविहीन जब
इंसां ने भी गँवा दिया चित्त,
जीवन को परिभाषित करती
हो ना जाए धरा अपरिचित...

Monday, December 6, 2010

ख़्वाहिशों के परिंदे


ख़यालों के जंगल में,
कुछ अहसासों ने
कोटर बना लिए..
और देखते ही देखते
सैकड़ों ख़्वाहिशों के परिंदों ने
वहां बसेरा कर लिया...

कभी विचारों की आंधी
और अहसासों की हलचल में,
परिंदों ने उड़ान भर ली..
ग़ुम हो गयी कुछ ख़्वाहिशें,
और कुछ के पर ज़ख़्मी हो गए..

आंधी शांत हुई तो..
फिर से उन कोटरों में
चहचहाहट गूँज रही है..
कुछ और परिंदों ने
अभी अभी
वहां बसेरा किया है...

Saturday, December 4, 2010

स्वेटर


ठिठुरते पावों 
और सर्द जिस्म को गर्माहट देती थी
जाड़े की सुनहरी धूप..
माँ घर के काम ख़त्म करके
हर रोज़
इसी धूप में छत पे
स्वेटर बुनती थी,
हर साल, एक रस्म की तरह..
मेरी पीठ पे आधे बुने धागों को रखकर
नाप लिया करती थी..
और फिर नए बुने स्वेटर को
फ़क्र से पहन के निकलते थे..


अभी..गरम कपड़ों को तलाशते
माँ का बुना एक स्वेटर हाथ में आया,
जिस्म पे रखते ही
फिर उसी ममतामयी स्पर्श का
अहसास हो आया,
जाड़े की सुनहरी धूप के जैसा..

Wednesday, December 1, 2010

नन्हा चाँद


आजकल
चाँद बड़ा शरारती हो गया है,
बादलों की ओट में
घोंसला सा बना के छिप जाता है,
बीच बीच में
थोडा सा सर निकालता है,
नन्हे बच्चे की तरह
मेरे साथ लुक्का छुप्पी खेल रहा है..
ख्वाहिश करता हूँ
ये फ़लक और ज़मीं की दूरी मिट जाए
और ये नन्हा बालक
मेरे आँगन में आकर
अपने नन्हे हाथों से अपनी आँखों को ढके,
फिर खोले और फिर ढके...

Saturday, November 27, 2010

चल साथी फिर चौपाल चलें..


चल साथी फिर चौपाल चलें..

तेरे कंचे फिर खनकेंगे
मेरा लट्टू फिर घूमेगा
और कबड्डी की पारी में
तन फिर मिटटी को चूमेगा..

उस केसरिया शाम का दामन
आ फिर थाम चलें,
चल साथी फिर चौपाल चलें..

कभी गुरुजी के डर से
कक्षायें हमने छोड़ी थीं,
उस आँगन की चाह में हमने
घर की राहें छोड़ी थीं,

कुछ कटी पतंगे लूटने फिर से
आ चल दौड़ चलें,
चल साथी फिर चौपाल चलें..

सुरजन काका की बाँहों में
सब तकलीफें बिसराते थे,
राजाओं और परियों की कहानी
सुनते सुनते सो जाते थे,

राग बसंती आल्हा गाथा
आ फिर सीख चलें,
चल साथी फिर चौपाल चलें..

उस आँगन की मिट्टी में
कुछ लम्हे हमने बोये थे,
जब पीछे छोड़ा था उनको
सिसकी ले ले वो रोये थे,

पके हुए उन लम्हों को
आ चल तोड़ चलें,
चल साथी फिर चौपाल चलें...

Tuesday, November 23, 2010

शिकस्त


अभी तो आगाज़ था..
फ़लक पर हुकूमत कर,
अपने ओज से
उसे उजला करने का
सपना भर ही देखा था..
हवा के हल्के थपेड़े ने
ज़मीं पे डाल दिया फिर..
एक शिकस्त से घबराकर,
आँखें
बंद नहीं करनी थीं..
उठकर खुली आँखों से
ख़ुद को,
उड़ते देखना था,
फिर से..
एक शाहीन की तरह..

Wednesday, November 17, 2010

विरह के मीठे पल (ग़ज़ल)


इस दिल के ख़ाली गुलशन में
कुछ महक रहे हैं गुल ऐसे,
कुछ अरमाँ उफ़न रहे हैं
कोई सहर उठ रही जैसे ||


कुछ पल ये अंदाज़ नया
मुझको अहसास दिलाता है,
धाराएँ कुछ तन और मन की
कहीं दूर मिल रहीं जैसे ||

कभी विरह के आलम में
ये पल कुछ ऐसा लगता है,
प्यासी धरती पर मेघदूत बन
एक चातक आया जैसे ||

इस पल के ऐसे बीतने पर
एक शीतलता छा जाती है,
इस तन को गरमानी वाली
कोई आग बुझ रही जैसे ||

Saturday, November 13, 2010

रे पंछी उड़ जा


शहर की भागा दौड़ी में,
काहे भूल गया पहचान,
रे पंछी उड़ जा,
तोहे बुलाये तेरा धाम..


बिसरे हैं अब नन्द जसोदा,
बिसरी घर गाम की गलियाँ,
वहां तो सब तौहार थे तेरे,
यहाँ ना वो रंग रलियाँ,
अरे किशन लड़े थे एक कंस से,
यहाँ हज़ारों नाम..
रे पंछी उड़ जा तोहे बुलाये तेरा धाम...

धन दौलत के चक्कर में
अपनों का संग था छूटा,
लोभ कि चटनी संग मिला
हर सख्स यहाँ था झूठा,
अंत समय अब यही सोचता
माया मिली ना राम...
रे पंछी उड़ जा
तोहे बुलाये तेरा धाम..

Thursday, November 11, 2010

दास्तान की खोज



एक नन्हीं सी दास्ताँ थी
कहीं खो गयी,
मैं भी निरा भुलक्कड़
सारे किरदार और 
भूमिका भी भूल गया..
शायद,
कोई किसान रहा होगा, विदर्भ का,
या फिर कोई बेरोज़गार, ग़ुमराह, अपराधी युवक..
मुंबई के फुटपाथ पे सोया हुआ
भिखारी भी हो सकता है,
और किसी भ्रष्ट नेता या अफ़सर की कल्पना से भी 
इनकार नहीं कर सकते..
लगता है-
सारे हिन्दुस्तान में खोजना पड़ेगा..

Tuesday, November 9, 2010

अनकहे जज़्बात


एकमुश्त, अनगिनत ख़याल उमड़े,
धडकनें तेज़ हुईं,
और दिमाग़ी तार आपस में उलझ गए,
जुबां ने साथ ना दिया,
हाथों ने कलम उठा ली
और उतार दिए सारे जज़्बात काग़ज़ पर,
देखा तो कुछ नज़्में
मेरी डायरी में अठखेलियाँ कर रहीं थीं..

Wednesday, November 3, 2010

संगीत और श्रृंगार


जब मिलती थीं उनसे नज़रें
सातों सुर खिल जाते मन में,
जो अधकच्चे रह जाते थे
वो तड़पाते फिर सपनों में..
    इस मन पगले ने ढूँढा है
    तुमको हर कवि की कविता में,
    संयोग में वो रस मिला नहीं
    जो है वियोग की सरिता में.. 
तुम कभी कभी उस महफ़िल में
मुझको आवाज़ लगाती थी,
जैसे मन के सब तारों को
अपने सुर से झनकाती थी...
    अब वीणा को झंकार भी दो
    मैं भी कुछ राग लगाऊंगा,
    संगीत का दरिया बहने दो
    मैं डूब के तर हो जाउंगा...

Tuesday, November 2, 2010

ऑर्डर

  
कपास के रेशों की तरह
कुछ ख़याल हैं ज़हन में,
ये मन जुलाहा उन्हें साफ़ कर
शफ्फाक़ रुई बना रहा है,
सूत तैयार होते ही बुनेगा..
एक और नज़्म का ऑर्डर आया है !!


Tuesday, October 26, 2010

ना सोया ना जागा हूँ...


ये उजला सा अँधेरा क्यूँ है,
फलक जगमगा रहा है
अमावस की रात की तरह,
मगर क्यों कोई तारा नहीं टिमटिमा रहा,
बस कुछ अजीब सी बुलबुलों जैसी आकृतियाँ,
जैसे किसी पेशेवर चित्रकार ने
तमाम ज्योमेट्री का ज्ञान एक स्याह कागज़ पे उड़ेल दिया हो,
एक दूसरे से टकराकर, इधर उधर भाग रही हैं,
जिसको देखने की कोशिश करो,
वो दुगुनी तेज़ी से उसी दिशा में भाग जाती है..
सोच रहा हूँ कोई सपना है,
मगर मैं सोया नहीं हूँ..

ज़रा हटा तो अपनी जुल्फों के बादल,
हकीक़त का सूरज देखना है....

Sunday, October 24, 2010

अफसानों की तलाश


कुछ और भी होंगे अफ़साने
कहीं दबे हुए,
अनगिनत ख़यालों और कुछ अनछुए पहलुओं को-
ख़ुद में समेटे हुए,
शायद कहीं अँधेरी गलियों के नुक्कड़ों पे
मिल जाएँ...
चलो ढूंढते हैं !!!

Friday, October 22, 2010

- क़लम और चांदनी -

देर कर दी आज,
चाँद ने उफ़क से उठने में,
पूछना था मुझे-
की ऐसा क्या है उसकी शफ्फाक चांदनी में,
जो दिन के सारे ग़मों को छानकर
मेरी क़लम की आहट को
ख़ुशनुमा कर देती है..
और
हर नज़्म इसमें धुलकर,
शब के अँधेरे अहसास को-
बहा ले जाती है..

आज चाँद ने उठने में देर कर दी,
क्योंकि,
आज मेरी क़लम ने-
ग़म और उदासी भरा दरिया बहाया है....

Friday, October 15, 2010

ये मन आवारा पंछी


इस मन आवारा पंछी का,
हर डाल बसेरा होता है,
कभी तो मंज़िल पाता है,
पर कभी ये सब कुछ खोता है..
इस मन आवारा पंछी का, हर डाल बसेरा होता है...


क्यूँ भटक रहा उन गलियों में,
जो अँधेरी सुनसान सी हैं,
क्यूँ बात ये ऎसी पूछ रहा,
जो सबके लिए अनजान सी है,
जब ऐसे हों हालात तो क्या, कभी सवेरा होता है,
इस मन आवारा पंछी का, हर डाल बसेरा होता है...


कोई दर्द रहा होगा ऐसा,
हर वक़्त इसे तड़पाता है,
शायद कोई शख्स रहा होगा,
जो इसे बहुत ही भाता है,
उन भूली बिसरी यादों को जब, ढूँढने निकला होता है,
इस मन आवारा पंछी का, हर डाल बसेरा होता है...

Wednesday, September 29, 2010

अर्ज़ है..

अब क्या बतलाएं हाल-ए-दिल,
किस तरह जीया करते हैं,
कुछ यादें हैं कुछ लम्हों की,
बस उन्हें पीया करते है !!
*******************

कुछ तंग से थे दिल, कुछ तंग से थे हम,
कुछ तंग थी वहां, गलियां वो इश्क की,
निकले जो ढूँढने, दिलवर सा खज़ाना,
जो ख़ाक सा मिला, उसे मुकद्दर समझ लिया !!
********************

देख लीं बहुत, हसीनाओं की महफ़िल,
लुट जाए जिसपे दिल, कोई ऐसा नहीं मिला,
अब डूबे रहते हैं, शबो-सहर शराब में,
ना अपनों से मुहब्बत है, ना दुश्मन से है गिला !!
********************

Saturday, September 25, 2010

-उदास लम्हे-




















एक
दौर गुज़र गया,
ना कुछ कहा ना सुना,
बस समेट ले गया
सारे पल..
जाते जाते गिरा दिए कुछ,
दबे कुचले और मैले
उदास लम्हे,
जिन्हें लेकर जीना है अब
समय का एक नया दौर...

Friday, September 24, 2010

"रे मन तू ले चल दूर कहीं.."


रे मन तू ले चल दूर कहीं..

जब पंछी करे पुकार
तो नभ कर ले सोलह श्रिंगार,
जहाँ इन्द्रधनुष की छाया में
जग भर ले रंग हज़ार...

रे मन तू ले चल दूर कहीं..

जहाँ अपनापन हो हर घर में
हर ईश्वर हो हर आँगन में,
जहाँ हर प्यासे राही के लिए
अमृत झलके सबके मन में..

रे मन तू ले चल दूर कहीं..

जहाँ यौवन की हर आँधी में
मुश्किल पत्तों सी उड़ जाए,
और बड़े बुजुर्गों के हाथों में
मासूम सा बचपन खिल जाए...


रे मन तू ले चल दूर कहीं.......

Monday, September 13, 2010

सपने ना गिर जाएँ..


तू चल राही पर ज़रा सम्हल,

मुट्ठी ना खुल जाए,
जो बीने हैं राहों से,
सपने ना गिर जाएँ...

कस के बाँध ले झोली,
जब तू दौड़े जीवनपथ पर,
कहीं तेरे आवेग में ये
झोली ना खुल जाए...

Tuesday, September 7, 2010

मेरे कुछ गीत पुराने..

कुछ रुकी हुई सी बातें,
और अनकहे अफ़साने,
रह रह कर गूँज रहे मन में,
मेरे कुछ गीत पुराने..
कुछ सुर थे बांस की बंसी पर,
कुछ एकतारे की तान पे थे,
जो राग अधूरे ठहरे थे,
वो वीणा की रुन्झान में थे..
ना जाने क्यों ये रुक सी गई,
जो कलम कभी दीवानी थी,
आवाज़ भी मेरी रूठ गई,
हर मौसम जो मस्तानी थी...
कुछ याद नहीं क्या भूल रहा,
शायद कुछ चला था गाने,
रह रह कर गूँज रहे मन में,
मेरे कुछ गीत पुराने..

Wednesday, September 1, 2010

यादों का पुलिंदा




तन्हाई में बैठे हुए अक्सर,
जेहन में कुछ ख्याल उभरते हैं
कुछ अधूरे और कुछ अटूट रिश्ते,
मन के खाली अशांत कौनों को
भरने लगते है..
और देखते ही देखते खुल जाता है
मेरी खोई हुई स्वप्ननगरी की
यादों का पुलिंदा !!!

इस पुराणी जर्जर पोटली के
फटे हुए कोनों से गिरती हैं
कुछ सहज सी सख्सियतें
देती थीं हर मोड़ और उलझनों भरे चौराहे पर
अपने भरोसे का सहारा...
कहते थे जिन्हें साथी हमकदम,
मेरी परछाई से भी वाकिफ थे...

आज समेट लेना चाहता हूँ
उन सारे लम्हों को
जो बिखरे पड़े हैं,
इस फटे और खुले हुए,
मेरी यादों के पुलिंदे से...............

Friday, May 14, 2010

लाल ज़मीं ?? (नज़्म)















ग़ाहे बगाहे मुझे याद आता है
मेरी ग़लती
पर
मास्टरजी ने बताया था,
"ज़मीं का रंग लाल नहीं होता"

आज यहाँ चौराहे पर
गांधीजी के क़दमों में
लगा है लाशों का ढेर
और मैं वहाँ ज़मीं को कुरेद कर
उसका वही असली रंग ढूँढ रहा हूँ
जो अभी लाल हुआ पड़ा है

Sunday, April 4, 2010

अंतराग्नि ( PAF २०१०, छात्रावास २, ७, ८ और तानसा हाउस IIT Bombay)




अंतराग्नि...
हर मानव के वजूद की लौ,
उसके सपनों का आधार,
हर मुश्किल से लड़ने का हौसला,
और उसकी विजय का प्रतिबिम्ब...
ये उसकी अंतराग्नि....

चाहे तो तू बुरा है, चाहे तो भला है,
तेरे ही कर्मों की छाया से,
तेरा अस्तित्व निकला है...
गर चाहता है अँधेरे में सूरज की चमक,
और कर्मों में सिंह सा जोश,
तो प्रज्ज्वलित कर...
अपनी अंतराग्नि....

रख विश्वास तू खुद पर,
ना बैठ निर्जीव सा होकर,
तेरी राहों की हर बाधा,
और अंतर्मन की हर व्याधा,
भस्म कर देगी...
ये तेरी अंतराग्नि....

Thursday, February 25, 2010

बंदिशें (नज़्म)



लफ्ज़ बाहर आने को मचलते हैं,
हर ख़याल के साथ, तस्वीरों से उभरते हैं,
बंदिशें लगाती है ज़िन्दगी की सच्चाइयाँ,
हर बार ये बावरे बोल हलक से निकलते हैं,
"
एक बार तो मुझे अपने ख़यालों के साथ फुर्सत में बैठने दो॥"...

Thursday, February 11, 2010

घरोंदा


बारिश की हल्की बौछारों से,
लगी महकने गीली मिट्टी,
पाँव के ऊपर उसे लगाकर,
मैंने थापा एक घरोंदा,
भोलू से अच्छा मोनू से प्यारा,
सबसे सुन्दर मेरा घरोंदा॥

टूटी चूड़ी के टुकड़ों से उसे सजाया,
रंग बिरंगे धागों का घेर बनाया,
गोल गोल से छोटे पत्थर से,
चुन्नू, मुन्नी और माँ को बनाया,
अपने भोले सपनों से सजाकर,
मैंने थापा प्यारा घरोंदा॥

मौसम बीते बरस बीते,
और जीवन की भाग दौड़ में,
ना जाने कितने सपने बीते,
हर सपने को बुनियाद बनाकर,
मैंने जोड़ा एक शीशमहल॥

आज समय की आँधी में,
खो गए वो भोले सपने,
शीशमहल की आड़ में जो छुप गए,
चुन्नू, मुन्नी और माँ थे॥
आज में अपने शीशमहल में,
ढूँढ रहा हूँ वही घरोंदा,
अपने भोले सपने से सजाकर,
मोनू से अच्छा, भोलू से प्यारा,
मैंने थापा था जो घरोंदा॥