वक़्त रेत की सकल बनाकर
मुट्ठी से यूँ निकल गया,
दाना चुंग मेरे आँगन से
कोई पंछी गुजर गया...
कभी पतंगों के पीछे
गाँव की गलियां छानी थीं,
ठंडी बारिश के ओले खाकर
हमने की मनमानी थी...
शाम ढले कुछ जुगनूं उड़कर
हमको बहुत लुभाते थे,
रात सितारों के नीचे बाबा
किस्से हमें सुनाते थे..
आज ये बारिश गीली भर है
ओले सारे सूख गए,
बाबा की बस याद रह गयी
जुगनूं बुझकर डूब गए...