Saturday, November 12, 2011

दस्तक



कुछ अधूरे ख़्वाब 
मेरी दबी हुई ख्वाहिशों की डोर थामे,
क़ायनात की ख़ूबसूरती से गुज़रते हुए,
हज़ारों मंज़िलों पर दस्तक देते है...
हर मंजिल 
एक अनजान पहेली की तरह,
मेरे सवालों का जवाब,
एक नए सवाल से देती है...और 
हमेशा की तरह,
उसका मेरे पास
ना ही कोई जवाब होता है और...

ना ही एक नया सवाल...हर मंजिल से गुज़रते गुज़रते,
ख्वाहिशो को दबाती हुई परत,
और सख्त हो जाती है,
और मेरे अधूरे ख़्वाब....
उन सख्ती से दबी हुए,
मेरी ख्वाहिशों की डोर 
थामे,
कायनात की खूबसूरती से गुज़रते हुए,
फिर किसी नयी मंजिल के दरवाज़े पर 
दस्तक देते है....


(Republished after editing)